HADOTI HULCHAL NEWS

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भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव 8 मई रविवार से 13 मई शुक्रवार तक होगा आयोजित

सौरभ जैन

झालावाड़। पिड़ावा सकल दिगम्बर जैन समाज के तत्वावधान में श्री पारसनाथ दिगम्बर जैन जुना मन्दिर नवीन जिनालय खंडपुरा में 1008 आदिनाथ मजिनेन्द्र जिन बिम्ब पंचकल्याणक प्राण प्रतिष्ठा, एवं विश्व कल्याण महायज्ञ व भव्यातिभव्य रथ परिक्रमा महोत्सव 8 मई रविवार से 13 मई शुक्रवार तक आयोजित होने जा रहा है। जैन समाज प्रवक्ता मुकेश जैन चेलावत ने बताया की धर्म रूपी तीर्थ का प्रर्वतन करने वाले तीर्थंकर के जीवन की पांच विशिष्ट अवस्थाएं ही कल्याणक है। जिन्हें सौधर्मेन्द्र ने महामोहत्सव के रूप में सम्पन्न किया था। अतीत की स्मृति को वर्तमान में जगाने के लिए बड़ा पूण्य का उदय है की पिड़ावा की पावन नगरी में भव्य पंचकल्याणक के भाव पिड़ावा समाज के हुवे हे इस सातिशय पूण्य प्रदायक पंच कल्याणक प्राण प्रतिष्ठा, अंतश चेतना के संवाहक, राष्ट्रहित, चिन्तक संत शिरोमणि आचार्य प्रवर विद्यासागर महाराज के परम आशीर्वाद से परम मुनि भूतबलि सागर महाराज ससंघ के पावन सानिध्य में हो रहा है। इसमें दिव्य और भव्य श्री 1008 पाश्र्वनाथ भगवान दिगंबर जैन जुना मंदिर नवीन जिनालय खंडपुरा में विराजमान किए जाने वाले जिन बिम्ब, र्निदोष मंत्रोच्चार भावों की विशुद्धता और संयम की साधना पुर्वक संस्कारित होगें। साक्षत सम्यक्त्व निधि के निमित्त इन जिन बिम्बों के दर्शन वंदन करके हजारों नर, नारियों के गुंजायमान स्वरों के साथ श्रद्वा से मस्तक झुक जायेगे। श्रद्धा को जगाने वाले, आत्मा को पतित पावन बनाने वाले इस पूण्यानुबंधी पुण्य महोत्सव में सातिशय पुण्यार्जन के साथ आत्मा को परमात्मा बनाने का पुरूषार्थ जगायेंगे। इस पंचकल्याणक में सोधर्म इन्द्र सत्येंद्र जैन, रजनी जैन है व पंचकल्याणक समिति के अध्यक्ष राजेंद्र जैन ध्वजारोहण करेगें। इस अवसर पर मंगलवार को श्री पारसनाथ दिगम्बर जैन जुन मन्दिर नवीन जिनालय खंडपुरा में सभी इन्द्र, इन्द्राणी की और से मंगल गीत का कार्यक्रम रखा गया। जिसमें पिड़ावा की जिनवाणी मण्डल, सिद्वा मण्डल, चन्दनबाला मण्डल, मेना सुन्दरी मण्डल, राजुल गुर्प आदि महिला मण्डल द्वारा पंचकल्याणक के मंगल गीत गाये। अन्त में सभी को श्री फल वितरित किये गये।

जैन दर्शन में अक्षय तृतीया का महत्व

भारतीय संस्कृति में बैसाख शुक्ल तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है। इसे अक्षय तृतीया भी कहा जाता है। जैन दर्शन में इसे श्रमण संस्कृति के साथ युग का प्रारंभ माना जाता है। भरत क्षेत्र में युग का परिवर्तन भोग भूमि व कर्मभूमि के रूप में हुआ। भोग भूमि में कृषि व कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं।उसमें कल्पवृक्ष होते हैं। जिनसे प्राणी को मनवांछित पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। कर्म भूमि युग में कल्प वृक्ष भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं और जीवको कृषि आदि पर निर्भर रह कर कार्य करने पड़ते हैं।भगवान आदिनाथ इस युग के प्रारंभ में प्रथम जैन तीर्थंकर हुए। उन्होंने लोगों को कृषि और षट् कर्म के बारे में बताया तथा तीन वर्ण की सामाजिक व्यवस्थाएं दीं। इसलिए उन्हें आदि पुरुष व युग प्रवर्तक कहा जाता है।राजा आदिनाथ को राज्य भोगते हुए जब जीवन से वैराग्य हो गया तो उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ली तथा 6 महीने का उपवास लेकर तपस्या की। 6 माह बाद जब उनकी तपस्या पूरी हुई तो वे आहार के लिए निकले। जैन दर्शन में श्रावकों द्वारा मुनियों को आहार का दान किया जाता है, लेकिन उस समय किसी को भी आहारचर्या का ज्ञान नहीं था। जिसके कारण उन्हें और 6 महीने तक निराहार रहना पड़ा। बैसाख शुक्ल तीज (अक्षय तृतीया) के दिन मुनि आदिनाथ जब विहार (भ्रमण) करते हुए हस्तिनापुर पहुंचे। वहां के राजा श्रेयांस व राजा सोम को रात्रि को एक स्वप्र दिखा। जिसमें उन्हें अपने पिछले भव के मुनि को आहार देने की चर्या का स्मरण हो गया। तत्पश्चात हस्तिनापुर पहुंचे मुनि आदिनाथ को उन्होंने प्रथम आहार ईक्षु रस (गन्ने का रस)का दिया। जैन दर्शन में अक्षय तृतीया का बहुत बड़ा महत्व है और जैन श्रावक इस दिन ईक्षु रस का दान करते हैं। प्रथम तीर्थंकर की प्रथम आहार चर्या तथा प्रथम दानतीर्थ प्रवर्तन की सूचना मिलते ही देवों ने तथा भरतचक्रवर्ती सहित समस्त राजाओं ने भी राजा श्रेयांस का अतिशय सम्मान किया। भरत क्षेत्र में इसी दिन से आहारदान देने की प्रथा का शुभारम्भ हुआ। पूर्व भव का स्मरण कर राजा श्रेयांस ने जो दानरूपी धर्म की विधि संसार को बताई उसे दान का प्रत्यक्ष फल देखने वाले भरतादि राजाओं ने बहुत श्रद्धा के साथ श्रवण किया तथा लोक में राजा श्रेयांस “दानतीर्थ प्रवर्तक“ की उपाधि से विख्यात हुए।दान सम्बन्धित पुण्य का संग्रह करने के लिये नवधाभक्ति जानने योग्य है। जिस दिन भगवान ऋषभ देव का प्रथमाहार हुआ था उस दिन वैशाख शुक्ल तृतीया थी। भगवान की ऋद्धि तथा तप के प्रभाव से राजा श्रेयांस की रसोई में भोजन अक्षीण(खत्म ना होने वाला, “अक्षय“) हो गया था। अतः आज भी यह तिथि अक्षय तृतीया के नाम से लोक में प्रसिद्ध है। ऐसा आगमोल्लेख है कि तीर्थंकर मुनि को प्रथम आहार देने वाला उसी पर्याय से या अधिकतम तीसरी पर्याय से मुक्ति प्राप्ति करता है। ऐसा भी कथन है कि तीर्थंकर मुनि को आहारदान देकर राजा श्रेयांस ने अक्षयपुण्य प्राप्त किया था।अतः यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाती है। वस्तुतः दान देने से जो पुण्य संचय होता है,वह दाता के लिये स्वर्गादिक फल देकर अन्त में मोक्ष फल की प्राप्ति कराता है। अक्षय तृतीया को लोग इतना शुभ मानते है कि इस दिन बिना मुहूर्त, लग्नादिक के विचार के ही विवाह, नवीन गृह प्रवेश, नूतन व्यापार मुहूर्त आदि करके गौरव मानते है। उनका विश्वास है कि इस दिन प्रारम्भ किया गया नया कार्य नियमतः सफल होता है। अतः यह अक्षय तृतीया पर्व अत्यन्त गौरवशाली है तथा राजा श्रेयांस द्वारा दानतीर्थ का प्रवर्तन कर हम सभी पर किये गये उपकार का स्मरण कराता है पिड़ावा नगर में भी इस अवसर पर 108 श्री भूतबलि सागर महाराज ससंघ को इक्षु रस का आहार देकर पूण्यार्जन किया।

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